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महामना मदन मोहन मालवीय : वामन से विराट की यात्रा
महामना मदन मोहन मालवीय: किसी व्यक्ति के समाज जीवन में किया गया एक समाजोपयोगी राष्ट्रीय कार्य उसे न केवल वैश्विक पहचान देता है बल्कि उसका व्यक्तित्व भी वामन से विराट बना देता है। व्यष्टिगत सुख, सुविधा एवं संतुष्टि से ऊपर लोकसृष्टि एवं समष्टि के कल्याण की वरीयता, हित-कामना एवं योगक्षेम की चिंता उसे महामानव बना देती है। संसार के प्राचीनतम शैक्षिक एवं सांस्कृतिक नगर काशी में अविस्थित शिक्षा का महान केन्द्र काशी हिंदू विश्वविद्यालय न केवल अपनी शोध एवं शैक्षिक उपलब्धियों का स्वर्णिम आलोक बिखेर रहा है बल्कि एक महनीय व्यक्तित्व के दूरदर्शी स्वप्न, संघर्ष एवं संकल्प सिद्धि की यश पताका भी जग सम्मुख फहरा रहा है, जिन्हें विश्व महामना मदन मोहन मालवीय के नाम से जानता और अपना श्रद्धा-नीर निवेदित करता है।
जिन्हें महात्मा गांधी ने अपना बड़ा भाई कहा और महामना कहकर पुकारा। हिंदी, संस्कृत एवं अंग्रेजी में पारंगत मालवीय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के चार बार अघ्यक्ष चुने गये और दूसरे गोलमेज सम्मेलन 1931 में भारत का प्रतिनिधित्व कर अपने तर्क, मेधा एवं तथ्यपरक वैदुष्यपूर्ण वक्तव्य से लंदन में धाक जमा दी। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व में शिक्षाविद, संपादक, प्रखर अधिवक्ता, समाज सुधारक, कुशल संगठक और हिंदी भाषा का प्रबल पक्षधर छवि दिखाई देती है।
ब्राह्मण मदन मोहन मालवीय के पूर्वज मालवा से आजीविका हेतु प्रयाग में आ बसे थे, इसी कारण इन्हें मालवीय कहा जाने लगा जो कोई जातिनाम न होकर क्षेत्र विशेष की पहचान ही थी। यहीं 1861 में 25 दिसम्बर को पिता ब्रजनाथ और माता मीना देवी के पुत्र के रूप में बालक मदन मोहन का जन्म हुआ। पिता श्रीमद्भागवत कथा वाचन करते थे और चाहते थे कि मदन मोहन भी इस परम्परा को आगे बढ़ाये। तो शुरुआती शिक्षा घर में ही पिता की देखरेख हुई जिसमेें बालक ने संस्कृत की आरम्भिक समझ विकसित की और कुछ श्लोक एवं चौपाईयां कंठस्थ कर लीं। साथ ही पूजन की कार्य पद्धति भी सीखने लगे। आगे की शिक्षा के लिए एक धार्मिक विद्यालय जाना हुआ। फिर प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर सेंट्रल कालेज में प्रवेश लिया और 1879 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण किया। इसी मध्य 1878 में आपका विवाह भी सम्पन्न हुआ। छात्रवृत्ति पाकर आगे की शिक्षा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचे और 1884 में बी.ए. उपाधि प्राप्त कर लौटते ही इलाहाबाद में 40 रुपये मासिक मानदेय पर शिक्षक के रूप में काम प्रारम्भ किया। एम.ए. करने की आकांक्षा पर अर्थाभाव पथ का कंटक बना।
इसी बीच देश में एक बड़ी राजनीतिक गतिविधि के रूप अंग्रेज कलेक्टर ए.ओ.ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की जिसके 1886 में कलकत्ता में दादाभाई नौरोजी की अध्यक्षता में आयोजित दूसरे अधिवेशन में 25 वर्षीय मदन मोहन मालवीय ने न केवल सहभागिता की बल्कि अपने धारदार ओजस्वी भाषण से सबको अपना प्रशंसक बना लिया। अधिवेशन में चतुर्दिक मालवीय का गुणगान हो रहा था। तभी राजा रामपाल सिंह के अपने साप्ताहिक पत्र ‘हिन्दुस्तान’ के संपादन दायित्व संभालने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लगभग तीस महीने तक संपादक के रूप में काम कर लेखनी का जादू बिखेरा। तत्पश्चात विधि स्नातक की उपाधि प्राप्त कर 1891 में जिला न्यायालय में वकालत शुरू किया और प्रगति करते हुए 1893 में उच्च न्यायालय इलाहाबाद में केस लड़ने लगे। यह पेशे के प्रति समर्पण एवं लगन ही थी कि जल्दी ही आपका नाम मोतीलाल नेहरू और सर सुदर लाल जैसे नामचीन वकीलों की पंक्ति में शुमार होने लगा।
मालवीय जी सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय थे। आपका सम्बंध समाज के प्रत्येक वर्ग से बन रहा था तो वहीं अंग्रेजों की शोषणकारी नीति को भी आप समझ रहे थे। आपके अनुभव में आया कि समाज में जागरूकता का नितांत अभाव है। किसान, मजदूर, महिलाएं कष्ट का जीवन जी रहे हैं। देश के संसाधनों का उपयोग ब्रिटेन के विकास में हो रहा है। भारतीय समाज पीड़ित है, बंटा हुआ है। आप व्यक्ति के विकास में शिक्षा को महत्वपूर्ण कारक मानते थे। शिक्षा जागरूकता से ही सम्भव थी, इसके लिए आपने इलाहाबाद से 1909 में साप्ताहिक अखबार ‘द लीडर’ का प्रकाशन शुरू किया। आगे जिसका हिंदी संस्करण भी निकलने लगा। 1910 में पत्रिका ‘मर्यादा’ भी प्रकाश में आई। एक कांग्रेसी नेता के रूप में देश भर में प्रवास करने के कारण वकालत के लिए समय कम पड़ने लगा। फलतः 1911 में वकालत छोड़ दी।
इसी बीच 1903 से 1920 तक आप प्राविंशियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहे। इसके पहले इलाहाबाद नगर पालिका के बोर्ड में भी आपने बहुत समय तक सदस्य के रूप काम किया। कांग्रेस के 1915 के बनारस अधिवेशन में आपने हिंदू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा जिसे स्वीकार किया गया। और तब 4 फरवरी 1916 को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो अन्तेवासी शिक्षा का आज एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है। आप 1919 से 1939 तक विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। कुलपति रहते हुए आप सदा छात्रों के हित में काम किये और छात्रों पर अर्थदंड को अनुमति नहीं दी। इसी बीच दिल्ली से प्रकाशित ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ भंवर में फंस बंद होने की कगार पर पहुंच गया, जिसे आपने उद्योगपतियों एवं अन्य सक्षम समर्थ मित्रों से आर्थिक मदद दिलाकर संकट से उबारा और 1924 से 1946 तक इसके चेयरमैन रहे।
1928 में लाला लाजपत राय के साथ मिलकर साईमन कमीशन का उग्र विरोध किया और अंग्रेजों की लाठियां खाईं। 1937 में राजनीति से मोह भंग हुआ तो संन्यास लेकर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में प्राणपण से जुट गये। आप विधवा विवाह के हिमायती थे लेकिन बाल विवाह के सख्त विरोधी। महिला शिक्षा एवं स्वावलम्बन पर समाज में चेतना जगाने का काम किया। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखते थे। यह उनके सतत प्रयासों का ही परिणाम था कि अदालतों में अरबी, फारसी एवं अंग्रेजी के साथ हिंदी को प्रयोग करने का फरमान 1900 में गवर्नर को करना पड़ा। काशी नागरी प्रचारिणी सभा उनकी ही देन है। हिन्दी भाषा, साहित्य एवं देवनागरी लिपि को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1910 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की स्थापना कर पहले अध्यक्ष बने। उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी ने 1917 के इंदौर सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने की मार्मिक अपील की थी।
काल से परे कोई नहीं है। जो जन्मता है उसका मरण भी निश्चित है। अनथक परिश्रम से क्लांत महामना मालवीय की देह 12 नवम्बर, 1946 को निष्प्राण हो गई। पूरा देश शोक में डूब गया। यह केवल एक मानव का जाना नहीं था बल्कि एक शैक्षिक मशाल का बुझ जाना था जो लोक का अहर्निश पथ प्रकाशित कर रही थी। 1961 में सरकार ने उनकी स्मृति में 15 नये पैसे का एक डाक टिकट जारी किया। 1991 में जारी एक रुपये के डाक टिकट में मालवीय जी की छवि के साथ पार्श्व में विश्वविद्यालय का चित्र अंकित है। वहीं 125वीं जन्म जयंती के अवसर पर 2011में पांच रुपये का सिक्का लोकार्पित किया गया। महामना मालवीय जी के विचार हमें प्रेरित करते रहेंगे और उनकी कृति बीएचयू उनकी कीति-गाथा गाता रहेगा।
महामना मालवीय की जीवन यात्रा के अनकहे पहलू
भारतवर्ष की भूमि ऋषियों-मनीषियों की पुण्यभूमि है। सेवा साधना की तपस्थली है। कर्मयोगी साधकों के कर्ममय जीवन का सुगठित वितान है तो कल्पना एवं विचार का प्रेरक आख्यान भी। संस्कृति की चिर पुरातन ज्ञान धार है तो शास्त्रों का समन्वित सुखद सार भी। यहां मां भारती की पावन रज में अनेकानेक महापुरुषों ने जीवन के गूढ़ अर्थ समझे और समाज को दिशा दी। इन महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से तो हम परिचित होते ही हैं लेकिन उनके जीवन यात्रा में ऐसे तमाम रोचक, मनमोहक एवं प्रेरक प्रसंग समाहित है जो कहीं पीछे छूट जाते हैं। लेकिन उनका न केवल अपना विशेष माहात्म्य होता है बल्कि वे घटनाएं उनके व्यक्तित्व एवं जीवन दर्शन के नूतन पट भी पाठकों के सम्मुख खोलती हैं।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं प्रथम कुलपति भारत रत्न महामना मदन मोहन मालवीय एक ऐसे ही महनीय व्यक्तित्व हैं जिनके जीवन के तमाम अनछुए-अनकहे प्रसंग है जो बच्चों एवं युवा पीढ़ी को न केवल प्रेरित कर सकने में समर्थ हैं बल्कि उनकी वैचारिक प्रखरता एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण को पुष्ट करने का आधार भी हैं। प्रस्तुत लेख में मैं महामना मदन मोहन मालवीय के जीवन से जुड़े कुछ ऐसे प्रसंग आपसे साझा करने की कोशिश करता हूं जो लोक जीवन में रचे बसे और पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक प्रसारित होते रहे हैं। स्वाभाविक है कालान्तर में मूल तथ्यों एवं घटनाओं में लोकरस का लालित्य लेप चढ़ गया हो। पर ऐसे सभी प्रसंग मालवीय जी के व्यक्तित्व को गरिमा गौरव प्रदान करते हुए उनकी विवेक बुद्धि, ज्ञान कौशल एवं उदात्त मानवीय गुणों के आगार का सात्विक दर्शन कराते हैं।
बनारस में 1915 में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में मालवीय जी ने एक हिंदू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार करते हुए उनसे ही यह गुरुतर कार्य दायित्व ग्रहण करने का आग्रह किया गया। यह सर्वविदित है कि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए काशी नरेश ने गंगा के तट पार जमीन दान दे साथ ही अर्थ सहयोग भी किया। मालवीय जी दूरदर्शी एवं कुशल संगठक थे, इसलिए वह चाहते थे कि विश्वविद्यालय में जन सामान्य से लेकर सेठ-साहूकारों, राजे-रजवाड़ों एवं नवाबों-निजाम का सहयोग हो ताकि विश्वविद्यालय के प्रति संपूर्ण देश में एक अपनेपन का भाव उत्पन्न हो। इस दृष्टि से मालवीय जी ने धन संग्रह हेतु पूरे देश में प्रवास किया और प्रत्येक व्यक्ति से कुछ न कुछ लेकर ही आए। ऐसा कभी नहीं हुआ कि खाली हाथ लौटना पड़ा हो।
विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए काशी नरेश ने शर्त रखी कि जितनी जमीन पर आप सूर्यास्त तक पैदल भ्रमण कर लेंगे वह आपको दान में मिल जाएगी। कहते हैं मालवीय जी दिन भर चले और जो जमीन दान में मिली उसमें 11 गांव, 70000 वृक्ष, 100 पक्के कुंए, 20 कच्चे कुंए, 40 पक्के मकान, 860 कच्चे मकान, एक मंदिर एवं धर्मशाला शामिल थे। सम्भव है लोकरंजन हेतु यह एक रूपक गढ़ा गया हो पर अपनी लक्ष्य सिद्धि के प्रति उनके समर्पण का परिचायक तो है ही। सुनने में आता है कि महामना मालवीय निजाम हैदराबाद के दरबार में उपस्थित हो विश्वविद्यालय के निर्माण में अर्थ सहयोग हेतु निजाम से अनुरोध किया। लेकिन निजाम ने साफ मना कर दिया।
ऐसे नैराश्य पलों में भी मालवीय जी विचलित नहीं हुए और संयम एवं धैर्य से काम लेते हुए निवेदन किया कि मैं जहां कहीं भी गया हूं मुझे यथा योग्य अर्थ सहयोग मिला है। कहीं से खाली हाथ निराश होकर नहीं लौटा। इसलिए आपसे भी प्रार्थना है की इस शैक्षिक अनुष्ठान में आप कुछ न कुछ अंश शामिल कर पुण्यभागी बनें। और यह कह कर उन्होंने एक चादर बिछा दी। कहते हैं तब निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की दृष्टि से चादर की ओर अपनी एक जूती उछाल कर कहा कि मेरी ओर से यही सहयोग है। मालवीय जी ने चादर समेटते हुए बुद्धि चातुर्य से हैदराबाद के प्रमुख चौराहे पर जूती की नीलामी की घोषणा कर दी। यह जन चर्चा का विषय बन गया, लोग जुटने लगे। यह जानकारी जब निजाम हैदराबाद को हुई तो गलती का अहसास हुआ तब उन्होंने बग्घी भिजवा कर आदर सहित मालवीय जी को दरबार में बुलवाया और क्षमा सहित मनोवांछित धनराशि भेंट किया।
ऐसे ही एक बड़ी प्रेरक घटना सुनी जाती है कि मालवीय जी रीवा नरेश की सभा में उपस्थित हो अपने आने का आशय प्रकट किया। जिस पर रीवा नरेश ने कहा कि पंडित जी आपकी दाल यहां नहीं गलेगी। तब मालवीय जी ने बहुत विनम्र शब्दों में कहा कि महाराज यदि यहां पानी होगा तो दाल अवश्य गलेगी। इस श्लेष शब्द युक्त वाक्य ने चमत्कार कर दिया और रीवा नरेश ने यथोचित दान देकर मालवीय जी को विदा किया। यह घटनाएं आज की पीढ़ी को सुननी एवं समझनी जरूरी है कि जीवन में जब हम बड़े उद्देश्यों को लेकर आगे बढ़ते हैं तो हमें किस प्रकार से सहनशील, धैर्यशील और विनम्र होना होता है। उल्लेखनीय है कि उनके पास आने-जाने के लिए कोई कार नहीं थी, वे इक्का-तांगा की सवारी कर लेते थे। एक बार मालवीय जी ट्रेन से कहीं बाहर से आये तो बनारस स्टेशन पर उतर तांगे की सवारी करते हुए विश्वविद्यालय आ रहे थे।
वृद्धावस्था के कारण तांगे की सवारी उनके लिए कष्टकर थी। उन्हें इस तरह यात्रा करते हुए विश्वविद्यालय के दो छात्रों ने देखा, जिसमें एक कालाकांकर के राजा का अनुज था। उन दोनों ने संकल्प किया कि मालवीय जी को चंदे द्वारा एक कार भेंट करने के बाद ही अन्न-जल ग्रहण करेंगे। उस समय एक कार की कीमत तीन हजार रुपये थी। वे दोनों छात्र अगली सुबह से लेकर शाम तक विद्यार्थियों और अन्य लोगों से चंदा एकत्र करते रहे पर दो हजार रुपये ही इकट्ठा कर सके। तब शेष एक हजार रुपये दानवीर शिव प्रसाद गुप्त ने नाम न प्रकट करने की शर्त के साथ दिये। कहीं से यह बात मालवीय जी को पता चल गई और सुबह ही उन्होंने उस विद्यार्थी को बुलाया और कहा कि आपने जो मेरे लिए किया है, उससे मुझे कष्ट हुआ है। क्योंकि विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु देश भर से निर्धन परिवारों से बच्चे आते हैं। यहां से जाने पर वह यह संदेश लेकर जाएंगे कि मेरे लिए कार की व्यवस्था हेतु उनसे धन लिया गया है। यह मेरे और विश्वविद्यालय की छवि पर आघात होगा। अतः आप सभी का पैसा वापस कर दें, तभी मैं अन्न-जल ग्रहण करूंगा। कहना न होगा की सभी के रुपये वापस कर दिये गये।
मालवीय जी समाज से दान में प्राप्त अन्न-धन का उपयोग परिवार के सदस्यों को नहीं करने देते थे। उनके घर में दो रसोई थीं, एक मालवीय जी के लिए और दूसरी शेष परिवार के लिए। मालवीय जी का भोजन शिवप्रसाद गुप्त द्वारा प्रेषित सामग्री से बनता था। एक दिन उनके पौत्र को परीक्षा देने जाना था किंतु परिवार की रसोई में नाश्ता तैयार न होने के कारण मालवीय जी के रसोईया ने बच्चे को नाश्ता देने हेतु पूछा तो मालवीय जी ने सख्त मना कर दिया और बोले कि परिवार की रसोई से कुछ पैसा दे दो। समयाभाव वश बालक बाहर कहीं नाश्ता न कर सका। पौत्र दिन भर भूखा रहा और मालवीय जी भी।
शाम को अपनी-अपनी रसोई से भोजन लेकर दोनों ने साथ भोजन किया। तब पोते ने पूछा कि आपने मुझे सुबह अपनी रसोई से क्यों नहीं खाने दिया। मालवीय जी का उत्तर हम सब के लिए एक प्रकाश स्तंभ की भांति सदा पथ प्रदर्शन करता रहेगा। उन्होंने कहा कि अभी तुम बच्चे हो इस गूढ़ रहस्य को नहीं समझ पाओगे। पर इतना समझ लो कि मेरी रसोई दान में प्राप्त अन्न से बनती है। उस अन्न को मैं पचा लूंगा क्योंकि मैंने थोड़ी सी देश सेवा की है, किंतु तुमने तो कुछ किया नहीं तो तुम्हारे लिए यह अहितकर होता। बालक ने मालवीय जी के चरणों में शीश झुका दिया। भारत रत्न महामना मालवीय जी के जीवन से जुड़े ऐसे ही तमाम प्रसंग किस्सों का रूप लेकर लोक जीवन को रसमय, विनोदमय एवं जीवन्त बनाये हुए हैं। आवश्कता है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर राष्ट्र रचना में अपना यथेष्ट अर्पण कर सकें, यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
प्रमोद दीक्षित मलय
लेखक शैक्षिक संवाद मंच के संस्थापक हैं और विद्यालयों को आनन्दघर बनाने के अभियान पर काम कर रहे हैं।
बाँदा, (उ.प्र.),
मोबा. 94520-85234
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